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कमजोर होता विपक्ष

anurag
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पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी और सपा प्रमुख की पुत्रवधू डिम्पल यादव कनौज लोकसभा सीट से निर्विरोध सांसद निर्वाचित हो गयी पर डिम्पल की इस जीत ने दो अहम् प्रश्न खड़े कर दिए है? मसलन आज देश की राजनीत किस दिशा की तरफ जा रही है?  और संसदिये व्यवस्था में विपक्ष की क्या भूमिका है?
किसी देश में स्वस्थ राजनीत के लिए यह आवश्यक है की जितना सत्तापक्ष मजबूत हो उतना ही विपक्ष। डिम्पल का निर्विरोध निर्वाचित होना इस बात का  सूचक है कि अब विपक्ष कमजोर होता जा रहा है और सिर्फ डिम्पल यादव के मामले में ही क्यों अपितु इससे पहले भी तमाम उद्धरण मौजूद है जब विपक्ष की निष्क्रियता के चलते सत्तापक्ष ने अराजक फैसले लिए है। याद कीजिये जब २१ नवम्बर २०११ को उत्तर प्रदेश विधानसभा के शीत्र्कालीन सत्र में तत्कालीन मायावती सरकार ने मात्र ३० मिनट के अन्दर अपने सभी प्रस्तावों को पास कराकर विधानसभा की कार्यवाही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी थी उस समय भी मायावती यह केवल इसलिए कर पाई थी की क्योकि उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष कमजोर था।
डिम्पल के मामले में जिस तरह विपक्ष ने घुटने टेके वो निश्चित ही निन्दनिये है। इस घटना ने यह साबित कर दिया कि देश कि संसदिये व्यवस्था में विपक्ष कि भूमिका मात्र खानापूर्ति की है। कन्नौज लोकसभा सीट के उपचुनाव सबने अपनी अपनी मज़बूरी बताई। जहाँ कांग्रेस ने पहले ही यह कह दिया की सपा प्रत्याशी के सामने हम अपना प्रत्यशी नहीं उतरेंगे तो वही बसपा ने उत्तर प्रदेश में बढ़ते हुए अपराध का हवाला देकर प्रत्याशी उतारने से मना कर दिया जबकि भाजपा ने बड़े ही नाटकीय ढंग से ऐसे समय पर अपना प्रत्यशी उतारा जब नामंकन करने का समय ही निकल चूका था। डिम्पल के खिलाफ सिर्फ दो निर्दलिये प्रत्यशियो ने पर्चा भरा था लेकिन उन्होंने भी पर्चा वापस ले लिया।
अब प्रश्न यह है कि संसद के अन्दर विपक्ष किस तरह सशक्त होगा जबकि वह संसद के बाहर ही सशक्त नहीं है। बसपा जो प्रदेश में बढ़ रहे अपराध का रोना रोकर  उत्तर प्रदेश विधानसभा के मौजूदा सत्र को लगातार प्रभावित करने की कोशिश कर रही है वो कनौज लोकसभा सीट के उपचुनाव में मूक दर्शक बनी खड़ी रही जबकि उसे चाहिए था की वो अपना प्रत्याशी उतारे। जीत हार तो तय करना जनता के हाथ में है राजनितिक दल कब से जीत का निर्धारण करने लगे। आज अगर किसी एक राजनितिक दल ने डिम्पल के खिलाफ प्रत्याशी उतारा होता तो कन्नौज लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव होते. और एक स्वस्थ राजनैतिक लड़ाई होती जिसमे जनता तय करती की हमारा सांसद कौन होगा. पर डिम्पल के खिलाफ प्रत्याशी  न उत्तार कर समूर्ण विपक्ष ने ही उनकी जीत सुनिश्चित कर दी। अब अगर कल को सत्तापक्ष कोई आराजक फैसला लेता तो विपक्ष किस मुह से उस फैसले का विरोध करेगा जबकि संख्याबल  के हिसाब से वो सदन के अन्दर कमजोर है क्योकि जब संख्या को मजबूत करने का समय आता तो सम्पूर्ण विपक्ष लंगड़ा हो जाता है । याद रखिये देश में सरकारे तभी तक नियंत्रित रहती है जब तक देश का विपक्ष मजबूत होता है.
पर ये भारत की विडम्बना ही है आज देश की राजनीत त्याग और बलिदान से हटकर निज स्वार्थो की पूर्ति पर आकर टिक है जहाँ राजनीत का मतलब सिर्फ इतना ही कैसे अपना भला हो। आज संसद के अन्दर उन मुद्दों पर बहस ज्यादा जरूरी होती है जिनमे कही न कही से कोई राजनेता जुड़ा हो। अब संसद के अन्दर देश हित की बात नहीं होती बल्कि स्वार्थहित की बात होती है. और जब तक इस देश की राजनीत स्वार्थो के भरपूर रहेगी देश का विपक्ष कमजोर रहेगा क्योकि स्वार्थो की पूर्ति तो तभी हो सकती है जब विपक्ष सत्तापक्ष के घुटने में रहे।

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