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आजादी के ६५ सालो में बसता दो भारत

anurag
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सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है, दिल पर हाथ रखकर कहिये देश क्या आजाद है” जनकवि अदम गोंडवी की ये लाइन मौजूदा परिदृश्य में हू-बा-हू  चिरतार्थ होती दिख रही है. कल जब देश अपनी ६५ स्वंत्रता वर्षगाठ मनायेगा तब अदम की ये लाइन आम आदमी की आवाज़ बनकर देश के सत्ताशीनो से ये पूछेगी क्या वास्तव में ६५ सालो की इस आजादी में हम आजाद हो पाए है?  जबकि आज भी हम हर क्षेत्र में गुलाम है फर्क इतना है अंग्रेजो के समय में हम प्रत्यक्ष रूप से गुलाम थे और आजादी के इस दौर में अप्रत्यक्ष रूप से. अब आप सोचेंगे ये कैसे ? अरे भाई सीधी सी बात है जब हमारे आचार, व्यवहार हर चीज़ पर पाश्चात्य सभ्यता हावी है तो फिर हम आघोषित तौर गुलाम है या नहीं. गाँधी जी  ने जिन विदेशी चीजो का बहिष्कार किया था आज हम और हमारे नेता उन्ही चीजो का अपना कर खुद को  गौरवान्वित महसूस करते है.हम आज तन और मन दोनों से गुलाम है. तन अगर आधुनिक संसाधनों का गुलाम है तो मन भ्रष्टाचार का गुलाम है. आलम है संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक हमारी सभी संस्थाएं पूरी तरह से भ्रष्टाचार में डूबी हुई हैं और इतना ही नहीं भ्रष्टाचारियो द्वारा आम जान को भी सुनियोजित तरीके से भ्रष्ट बनाया जा रहा है और इसीलिए जब किसी व्यक्ति अथवा संस्था विशेष के भ्रष्टाचार के बारे में इंगित किया जाता है तो उसका यही तर्क होता है की अप हमें ही क्यों अन्य व्यक्तियों /संस्थाओं को क्यों नहीं देखते, भ्रष्टाचार कहाँ नहीं है आदि आदि. यानि भरष्टाचार का सामान्यीकरण बड़े ही शान से किया जा रहा है चूकी सब्र और बर्दाश्त की भी एक सीमा होती है और अब लगता है पानी गले के उप्पर जा रहा है नतीजी ये है कि पिछले कुछ दिनों से भ्रष्टाचार को लेकर अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने जमकर आन्दोलन किया. सबने सरकार बदलने की बात की परन्तु प्रश्न ये है कि  क्या सरकार बदलने से भ्रष्टाचार ख़त्म हो जायेगा या फिर लोकपाल भ्रष्टाचार को ख़त्म कर देगा. भ्रष्टाचार कोई मशीन नहीं जिसे सही किया  और भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया और न ही भरष्टाचार कोई अपराधी है जिसे लोकपाल ने उठाया और जेल में बंद कर दिया. भ्रष्टाचार तो एक मीठा जहर है जो धीरे धीरे  इस देश की रगों में उतर गया है और ये हमारी व्यवस्था का अंग बन गया है  जिसके लिए सरकार के साथ इस देश में लागू अर्थव्यवस्था भी जिम्मेदार है. क्योकि ये हमारी अर्थव्यवस्था की ही देन है जिसको जितना मिल रहा है वो उतना लूट रहा है  अगर बदलना ही है तो व्यवस्था के साथ साथ अर्थव्यवस्था को बदलो जो इस भ्रष्टाचार की जननी है.
कहने को हमारे देश में समानता का अधिकार लागू  है पर समनाता है कहाँ दीखता नहीं. देश लगातर दो भागो में बटता जा रहा है. एक वो जो सभ्य, शिक्षित, आधुनिक संसाधनों से लैस है और एक वो जो भी आज भी गरीबी,शोषण और पिछड़ेपन का शिकार है. अब प्रश्न ये उठता है की एक ही देश में दो भारत कैसे बस रहा. जबकि दोनों भारत की सरकार एक है, जनता एक, संसाधन एक है?
देश में मिश्रित पूजीवादी अर्थवयवस्था लागू है. इस अर्थव्यवस्था के अनुसार जिसकी जितनी पूजी उसे उतना मुनाफा.मुनाफे पर पूरा हक उन मालिकानो का जिन्होंने पूंजी लगायी.जबकि पूंजी के बदले जो मुनाफा होता है उस मुनाफे के पीछे मेहनतकश मजदूरो का हाथ होता है जिन्हें मेहनत के बदले मिलते है चंद रुपये.
कही अलग जाने की जरुरत नहीं लोकतंत्र की चौथे सतम्भ पत्रकारिता को ही देख लीजिये. आज बड़े मीडिया संस्थान जिनकी कमाई करोडो में है उन संस्थानों में काम  करने वाले पत्रकारों की तन्खवाह क्या होगी? महज  १०००० या २०००० हजार रूपये. लेकिन इस तन्खवाह के बदले वो पत्रकार कम से कम से कम अपने संस्थान को पांच लाख से ज्यादा का बिजनेस देता है. लेकिन उस पांच लाख में उसका कोई हिस्सा नहीं  है.   उसको उसी दस बीस हजार में गुजरा करना है जो उसे एक महीने के वेतन के रूप मिलते है.. आम आदमी की की इन्ही तकलीफों को महसूस करते हुए अदम ने  लिखा था “कोठियो से मुल्क के में-आर को मत आकिये असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है” .
कल जब लाल किले के प्राचीर से देश के प्रधानमंत्री राष्ट्र को सम्बोधित करेंगे तो उनके पूरे भाषण में देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, गरीबी, और आर्थिक विकास की दर ही केंद्र बिंदु होंगे पर भाषण के बाद जब आगले दिन वो संसद में बैठेंगे तो सबसे पहले एफ.डी.आई को ही पास कराना चाहेंगे जो कही न कही हिन्दुस्तान में बसते दो देशो के बीच की खाई को बढ़ावा देने में मददगार होगी .
दरअसल हमारा समाज वर्गीय समाज है और उसके अपने अपने वर्गीय हित है जिस प्रकार से शेरो को आजादी है जंगल में अपने से कमजोर जानवरों को खा जाने की और जानवरों को आजादी है, बचा सके तो, भाग कर जान बचाने की.  उसी तरह से हमारी वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सब स्वतंत्र है माफिया स्वतंत्र है लूट, हत्या, बलात्कार, और आपहरण जैसे धधो के मार्फ़त अकूत सम्पति पैदा करने को, तश्कर स्वतंत्र है तस्करी कर अर्थव्यवस्था को खोखला करने को, नेता स्वतंत्र है राजकोष को लूट कर खा जाने को, डाक्टर स्वतंत्र है मनमानी दाम वसूलने को, वकील स्वतंत्र है न्याय को बेच कर खा जाने को और पत्रकार स्वतंत्र है हर एक पर कीचड़ उछालने को और निहित स्वार्थो की पूर्ति के बाद चुप हो जाने को.इसलिए आम आदमी की आजदी का मतलब कुछ नहीं है आम आदमीको आजादी तब मिलेगी जब समाज में फैले तमाम काले कारनामे करने वाले सफेद्पोस जनसेवको की आजादी पर अंकुश लगाया जाये. और इस समय देश की कोई भी राजनैतिक पार्टी ये सब करने जा रही हो ऐसा नहीं दिख रहा है क्योकि उनकी पहली प्राथमिकता है सत्ता प्राप्ति जिसके लिए चाहिए जिताऊ उम्मीदवार. जो येन  केन प्रकरेण अपनी सीट निकल सके और पार्टी को बहुमत दिलाने में सहायक बन सके और ऐसे क्षण में सारी नैतिकता धरी रह जाती है नतीजा हर राजनैतिक पार्टी से वही कुछ खास दबंग लोग चेहरे बदल बदल कर आते रहते हैं इसलिए सरकार चाहे जिसकी बने व्यवस्था परिवर्तन की कोई सम्भावना नजर नहीं आती.

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