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प्रोन्नति में आरक्षण क्यों और इस सन्दर्भ में मीडिया भूमिका क्या है ?

anurag
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पिछले कुछ दिनों से हमारी सरकार प्रोन्नति में आरक्षण को लेकर काफी चिंतित है और उसकी चिंता इस हद तक है वो इसके लिए सविधान में संशोधन तक करने जा रही है। यहाँ प्रश्न उठता है की क्या वर्तमान दौर में प्रोन्नति में आरक्षण जरुरी है ? जबकि पहले से ही जो जातिगत आरक्षण दिए गए है वो कही न कही सामाजिक विषमताओ को पैदा करते है। कहने को तो ये आरक्षण पिछड़ी और दलित जाती की जनता के लिए है जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े है पर वर्तमान दौर में इस व्यवस्था का फायदा उस तबके को मिल रहा है जो है तो दलित एवं पिछड़ी जाती से किन्तु आर्थिक रूप काफी ज्यादा मजबूत है और साम, दाम, दंड, भेद की विद्या मे निपुण है। इसलिए अब समय आ गया कि प्रोन्नति में आरक्षण देने से पहले वर्तमान में जो जातिगत आरक्षण की व्यवस्था लागू है उसकी समीक्षा की जाये और यह निर्धारित किया जाये की वर्तमान में आरक्षण की आवश्यकता किन रूपों में है।
परिस्थिति बहुत तेजी से बदल रही है, आज के दौर में पिछड़ा वही है जो आर्थिक रूप से पिछड़ा है। आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति सिर्फ पिछड़ी या दलित जाती में ही नहीं अपितु सवर्ण जाती में भी है इसलिए अब आरक्षण की जरुरत बदल गयी है। अब आरक्षण की जरुरत जातिगत आधार पर नहीं अपितु आर्थिक आधार पर है और जो आर्थिक रूप से पिछड़ा है उसे आरक्षण दिया जाये। जातिगत आधार पर वर्तमान दौर में जो आरक्षण व्यवस्था लागू है वो एक दीमक की भाति है जो धीरे-धीरे ही सही देश को अंदर से खोखला कर रही है। इस तरह की आरक्षण व्यवस्था में दो नुकसान है. पहला ये कि “ये व्यवस्था उन युवाओ में हतासा और निराशा भरती है जो केवल इसलिए प्रतियोगी परीक्षाओ में सफल नहीं हो पाते की उनकी जगह उनका प्रतिद्वंदी आरक्षण के लाभ के चलते उस पद पर आसीन हो जाता है जिसके लिए शायद वो उपयुक्त ही नहीं है ।”  और दूसरा ये कि जब ऐसे व्यक्ति जो योग्यता और क्षमताओ में कम है किन्तु आरक्षण के लाभ के चलते पद आसीन हो जाते है तो वे दायित्वों का सही निर्वहन नहीं कर पाते जिसके तमाम उदहारण भी मौजूद है. तमाम ऐसे अधिकारी और बाबू है जिन्हें बात करने का भी सलीका नहीं है किन्तु वे महत्वपूर्ण पद पर आसीन है क्योकि वे आरक्षण कोटे से आये हैं। ऐसे में सरकार ने प्रोन्नति में आरक्षण देने को जो फैसला किया है वो निश्चित तौर पर निन्दनिये है। पर सरकार के इस फैसले ने एक प्रश्न भी खड़ा कर दिया है कि क्या वर्तमान दौर में सविधान में संशोधन के लिए “प्रोन्नति में आरक्षण” ही सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है?
राष्ट्रहित को लेकर कई ऐसी बाते है जिसके लिए सविधान में संशोधन की आवश्यकता है जिसमे सबसे महतवपूर्ण विषय तो यही है की हमारे देश में किसी भी महत्वपूर्ण पद पर किसी व्यक्ति के आसीन होने के लिए जो शर्ते दी गयी है उसमे कही भी ये नहीं है आमुक व्यक्ति जो किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठ रहा है वो जन्म से इस देश का नागरिक हो। जबकि यह अत्यंत आवश्यक विषय है इसके अतिरिक्त भी तमाम विषय है जिसके लिए तत्काल संविधान से संशोधन की आवश्यकता है। पर इस सन्दर्भ में सरकार को कोई चिंता नहीं, उसे चिंता है तो इस बात की प्रोन्नति में आरक्षण को कैसे लागू किया जाये। और सरकार के लिए इस चिंता का होना भी लाजमी है क्योकि प्रोनात्ति में आरक्षण उसके लिए राजनैतिक रूप से हितकर है, ऐसा आरक्षण उसके वोट बैंक को मजबूत करेगा और वोट बैंक लिए तो सरकार कुछ भी कर सकती है।
यही पर हमारे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया की भूमिका भी संदेहस्पद हो जाती है। आज अगर मीडिया से जनतंत्र का विश्वाश उठ रहा उसका कारण यही है कि हमारी मीडिया जनतंत्र की पैरोकार न होकर सरकारी तंत्र की पैरोकार हो गयी है। मीडिया आज के समय में वही खबरे चलाती है जो कही न कही राजनैतिक या मनोरंजात्मक हो। प्रत्येक चैनल या अखबार किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़ा है और उस चैनल या अखबार में चलने वाली खबर उस राजनैतिक विचारधारा से प्रभावित रहती है । जिसके चलते सरकार के गलत निर्णयों पर भी मीडिया कुछ नहीं बोल पाती। ऐसे में जनतंत्र अपनी समस्यों को लेकर कहाँ जाये और किससे अपेक्षा करे वो उसकी समस्यों को सुनेगा. जनतंत्र की समस्या पर चर्चा करना शायद मीडिया काफी पहले भूल चूका है। ऐसे में जब जनता में उबाल आता है तो उसका पहला निशाना मीडिया होता है,  फिर भीगी बिल्ली के भाती हमारी मीडिया सरकारी तंत्र की चौखट पर नाक रगडती है कि हम पर हमला करने वालो को गिरफ्तार कीजिये और सरकारी तंत्र कुछ नहीं करता सिवाए आश्वासन के घूंटो को पिलाने के। थकी हारी हमारी मीडिया फिर वही पुराने ढर्रे पर चलने लगती है। यही कारण है की आज सरकारी तंत्र  बेख़ौफ़ होकर तमाम ऐसे निर्णय लेता है जो कही न कही जनहित के खिलाफ होते है और मीडिया नपुंशक की भाती शांति बनी रहती है, जिसके चलते जनता में सरकार और मीडिया के खिलाफ रोष बढ़ता जाता है। ऐसा ही एक मुद्दा है आरक्षण जो धीरे धीरे चिंगारी की भाती सुलग रहा अगर समय रहते इस विषय पर सरकार ने पुनः विचार नहीं किया तो यह मुद्दा जातीय संघर्ष का रूप ले लेगा और स्थिति  इतनी भयावह हो जायेगी कि न मीडिया इसे संभाल पायेगी और न ही सरकार चलाने वाले हमारे राजनैतिक दल।

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