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विगत कुछ माह से केंद्रीय राजनीत में तीसरे मोर्चे के गठन की कवायद काफी तेज हो गयी है, हलाकि ये कोई पहली बार नहीं है जब तीसरे मोर्चे को राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनैतिक विकल्प बनाने के प्रयास किये जा रहे हो इससे पहले भी कई बार तीसरे मोर्चे को राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनैतिक विकल्प के रूप में स्थापित करने की कोशिशे वामपंथी दलों विशेषकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में की गयी जो हर बार विफल रही। दरअसल वामपंथी पार्टियों के सोच है कि राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपाई और गैर कांग्रसी सरकार आये इसीलिए वो हमेशा से उन छोटे दलों को एकजुट करने में लगी रही जिनको लेकर तीसरे मोर्चे का गठन किया जा सके और जिनकी सोच सेक्युलर हो। तीसरा मोर्चा यानि उन छोटे छोटे राजनैतिक दलों का सामूहिक संगठन जो अकेले तो राष्टीय स्तर पर सत्ता में आ नहीं सकते किन्तु साझा तौर पर वो केंद्र की राजनीत में आने की चाहत रखते है जिसमे प्रमुख रूप से समाजवादी पार्टी , देश की सभी चारो वामपंथी पार्टिया, चंद्रबाबू नायडू की टी.डी.पी, जनता दल, जनता दल सेक्युलर आदि राजनैतिक पार्टिया शामिल है। यहाँ यह बात गौर करने योग्य है कि तीसरे मोर्चे के गठन के पीछे वामपंथी पार्टियों का उद्देश्य यह था कि राष्ट्रीय स्तर एक ऐसे राजनैतिक विकल्प को स्थापित किया जाये जो दलगत, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय मुद्दों से हटकर राष्ट्रीय हितो के बारे में सोचे। वस्तुतः तीसरे मोर्चे की मांग उस समय केंद्र बिंदु में आई जब सन ८९ में जनता दल की सरकार कम सीटो से बनी और सरकार को बचाने के लिए लेफ्ट और भाजपा दोनों ने समर्थन दिया। उस समय वामपंथियों पार्टियों के निशाने पर प्रमुख रूप से कांग्रेस थी और उनका एक ही मकसद था कांग्रेस को सत्ता से हटाना है, पर समय के साथ राजनीत में बदलाव आया और तीसरा मोर्चा कांग्रेस बनाम भाजपा हो गया जिसके चलते जनता दल के कुछ साथी जैसे शरद यादव, जार्ज फर्नाडिज आदि भाजपा में चले गए। यहाँ एक खास बात ये है कि लेफ्ट ने जो तीसरे मोर्चे की राजनीत शुरू की थी उसे कांग्रेस और भाजपा ने अपना लिया और एन.डी.ए और यू.पी.ए का गठन कर डाला।
इस बार की कवायद में जो बात सबसे अहम् है वो ये है कि अब इस मोर्चे के गठन का सारा दामोदार सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अपने कंधे पर ले लिया है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव सपा की अप्रत्याशित जीत से अभिभूत सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के नजर अब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है, जो उन्हें तीसरे मोर्चे के अस्तित्व में आने के बाद ही मिलती नजर आती है। तीसरे मोर्चे के गठन की अब तक कवायद पर गौर करे तो पता चलता है जब भी इस तरह की कोई कोशिश हुई वो कोशिश मुह के बल गिरी।
१९९६ में जब अटल सरकार अल्पमत में आ गयी तो वामपंथी पार्टियों ने छोटे दलों को जोड़ कर तीसरे मोर्चे का गठन किया। कांग्रेस और सी.पी.एम ने इस मोर्चे को बाहर से समर्थन दिया जबकि प्रमुख वामपंथी पार्टी सी.पी.आई सरकार में शामिल हुई और एच.डी देवगौड़ा के नेतृत्व में केंद्र में तीसरे मोर्चे ने सरकार बनायीं किन्तु देवगौड़ा के नेतृत्व में बनी सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पायी और देवगौड़ा की जगह पर तीसरे मोर्चे ने इंद्र कुमार गुजराल को देश का प्रधानमंत्री बनाया पर गुजराल की सरकार भी ज्यादा नहीं चल पायी और तीसरे मोर्चे की यह सरकार लगभग दो साल के कार्यकाल में ही सिमट कर रह गयी। वर्तमान दौर में मुलायम की जो तीसरे मोर्चे को स्वरुप में लाने की चाहत उभरी है वो वस्तुतः १९९६ की इसी घटना की देन है जब एच.डी. देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद लेफ्ट के सपोर्ट से मुलायम सिंह प्रधानमंत्री पद के बेहद नजदीक पहुंच गए थे पर अपने ही समाजवादी नेताओं की यादवी लड़ाई में मुलायम उस समय पीएम बनते-बनते रह गए और आइ.के. गुजराल पीएम बन गए। अप्रैल १९९७ की वो कसक सपा प्रमुख के दिल में अभी तक है और उन्हें लगता है की अब वो समय आ गया जब उनका १५ साल पुराना सपना पूरा हो सकता है इसीलिए वे राष्टीय स्तर पर इस कोशिश में लगे है कि सभी छोटे दलों को मिलाकर तीसरे मोर्चे का गठन किया जाये साथ ही मुलायम सिंह यह बात भी अच्छी तरह से जानते है कि तीसरे मोर्चे के गठन और प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुचने का उनका सपना उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार के कामकाज पर ही निर्भर करता है। इसीलिए वो उत्तर प्रदेश में अपने बेटे के नेतृत्व में बनी सपा सरकार के काम काज पर नजर बनाये हुए हैं। उनको पता है कि उत्तर प्रदेश के रास्ते ही वो केंद्र में राजनीत का केंद्र बिंदु बन सकते है साथ ही सपा प्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसी जीत भी तभी दोहरा पाएगी जब अखिलेश सरकार का कामकाज बेहतर होगा। इसलिए वह अपने बेटे की अगुवाई वाली सरकार के अब तक के प्रदर्शन पर नाराजगी जताने से भी नहीं हिचके। सूबे में लोकसभा की 60 सीटों का लक्ष्य बनाने वाले सपा प्रमुख चाहते हैं कि लोगों की दृष्टि में सपा सरकार की छवि अच्छी बने जिससे उसका लाभ वह लोकसभा चुनाव में पा सके और ज्यादा से ज्यादा सीट जीत कर केंद्र में अपनी एक अलग राजनैतिक हैसियत बना सके।
73 वर्षीय मुलायम सिंह की मेज पर आज कल उन दलों की लिस्ट है, जो लोकसभा चुनाव के बाद उनके संभावित साझीदार हो सकते हैं और साथ में है तीसरे मोर्चे का संभावित स्वरूप, जिसे लोहिया की संकलित रचनाओं के संपादक डॉ. मस्तराम कपूर ने तैयार किया है। अब उन्हें इंतजार है कि सरकार गिरे और फिर वह समय आए जिसका वे अप्रैल १९९७ से इंतजार कर रहे हैं। किन्तु यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि २०१४ के लोकसभा चुनाव में मुलायम राष्ट्रीय राजनीत का केंद्र बिंदु बनते है और तीसरे मोर्चे का गठन होता है तो उसका स्वरुप क्या होगा, उसमे कौन कौन से दल शामिल होंगे और क्या ये मोर्चा राष्ट्रीय हितो को साधने में सफल हो पायेगा ? जबकि अभी तक तीसरे मोर्चे का न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी तैयार नहीं है। इसके अतिरिक्त अभी हाल ही में केरल में हुए अपने २० वे सम्मलेन में वामपंथी दलों ने साफ़ तौर पर स्पष्ट कर दिया है कि अब तीसरे मोर्चे की लड़ाई एजेंडे के आधार पर लड़ी जायेगी। अब जब वामपंथी पार्टियों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मुलायम का तीसरा मोर्चा उनके एजेंडे में नहीं है। ऐसे में अभी तीसरे मोर्चे के स्वरुप और संभावनाओ के विषय में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी फिर भी यदि मान भी लिया जाये की तीसरा मोर्चा बन जाएगा तो भी उसमें आने वाली बाधाएं स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती हैं। जैसे जदयू का क्या रूप होगा? क्या जदयू के अध्यक्ष एनडीए का संयोजक पद छोड़ इस नए मोर्चे में शामिल होने के लिए सहमत होंगे? शरद जी जाहिर तौर पर भाजपा विरोधी हैं, लेकिन व्यवहारिक कारणों से वे एनडीए में बने रहना जरूरी समझते हैं। यही स्थिति जदयू के एकमात्र मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की भी है। क्या वे बिहार में भाजपा से रिश्ता तोड़ने की जोखिम उठाने की स्थिति में हैं? इस नए मोर्चे का एक स्वाभाविक घटक पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा का दल याने जेडीएस होगा। कहने को तो यह दल धर्मनिरपेक्ष है लेकिन अपने बेटे कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए श्री देवेगौड़ा ने भाजपा से गठजोड़ करने में संकोच नहीं किया था। आज फिर कांग्रेस विरोध के नाम पर भाजपा और जेडीएस साथ हो सकते हैं, लेकिन फिर क्या देवेगौड़ा केन्द्र और राज्य में अलग-अलग सिध्दांत पर चलेंगे। इसके अतिरिक्त इस तरह के तीसरे मोर्चे की रीति-नीति क्या होगी। यह जाहिर है कि अब जब वामदल भी इस तीसरे मोर्चे में शामिल नहीं होंगे तो क्षेत्रीय दलों का एजेंडा बहुत संकीर्ण होगा। कांग्रेस और वामदलों में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर व्यापक रूप से विचार करने की क्षमता भरपूर है। यह बात, यदि राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू और नितिन गडकरी जैसे नेताओं को भूल जाएं, तो भाजपा के बारे में भी कही जा सकती है, लेकिन क्षेत्रीय दल इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
वैसे तो राजनीत में सब संभव है क्योकि राजनीत अंतहीन समझौतो और संभावनाओ का खेल है। यदि वामपंथी दलों का प्रदर्शन २०१४ के लोकसभा चुनाव में बेहतर होता है तथा सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह के नेतृत्व में गठित तीसरे मोर्चे के दल भी अपने अपने प्रदेशो में प्रयाप्त सीटे निकलने में सफल हो गए तो मुलायम सिंह इस देश के प्रधानमंत्री बन भी सकते है। क्योकि उत्तर प्रदेश में क्रन्तिकारी मोर्चे के गठन से लेकर अब तक कई बार सपा प्रमुख से दावं खाने के बावजूद भी, साम्प्रदायिकता के खिलाफ मजबूती से खड़े होने के कारण वामपंथी पार्टियों की पहली पसंद मुलायम सिंह हो सकते हैं।
यह सही है कि कोई भी देश वैश्विक परिस्थितियों से अछूता नहीं रह सकता। अर्थ नीति हो या पर्यावरण, मानव अधिकार हो या सामरिक नीति, नदियां जोड़ना हो, अंतरिक्ष में जाना हो, खनिज दोहन करना हो, हर समय अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को ध्यान में रखना होता है और उनके बरक्स अपनी नीतियां तैयार करना होता है। आज एक भी क्षेत्रीय दल ऐसा करने में सक्षम नहीं दीखता किन्तु वामपंथी पार्टियों के अन्तराष्ट्रीय संबंधो व नीतियों के सम्बल से यह असंभव भी नहीं है। फिलहाल अभी हम यही कह सकते हैं –
अभी तो हैं इम्तिहान बाकी कि आप रहबर हैं या राहजन हैं,
जम्हूरियत का चिराग हैं या इसी सियासत के एक फन हैं।
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