लंबित मुकदमो के निस्तारण के लिए कम हो जजों की छुट्टियां
अदालतों में लंबित मुकदमो की संख्या लगातार बढती जा रही है। पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार की माने तो इस समय सुप्रीम कोर्ट तथा हाई कोर्टों में लंबित केसों की संख्या 3 करोड़ के अस्वीकार्य स्तर से भी ऊपर जा पहुंची है। जानकारों का कहना है कि जिस रफ्तार से केसों की संख्या में वृद्धि हो रही है उस हिसाब से तो सन् 2040 तक सुप्रीमकोर्ट व उच्च न्यायालयों में लंबित केसों की संख्या 15 करोड़ से भी अधिक हो जाएगी। ऐसे सवाल खड़ा होता है कि आखिर ऐसी परिथितियाँ किन कारणों से बनी ? साधारण तौर पर तो इस समस्या को देश भर की अद्लतों में व्याप्त जजों की कमी से जोड़ कर देखा जा सकता है। पर यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू होगा। इसके दूसरे पहलू में अदालतों में होने वाली लम्बी लम्बी छुट्टियाँ भी शामिल होंगी जिनके कारण लंबित मुकदमो की संख्या में और वृद्धि हो रही है।
इस संदर्भ में मद्रास हाईकोर्ट में एडवोकेट के. श्याम सुंदर ने एक जनहित याचिका दाखिल कर सवाल उठाया है कि ‘‘आज के जमाने में जब अदालतें वातानुकूलित हो चुकी हैं और जजों की कारें तथा आवास भी वातानुकूलित हैं, क्या हाईकोर्ट में गर्मी की छुट्टियों का कोई औचित्य है?’’ याचिकाकर्ता ने इन छुट्टियों को अंग्रेज़ों के दौर की देन बताते हुए इन्हें बिल्कुल गैरजरूरी करार दिया और कहा कि गर्मियों, दशहरा तथा क्रिसमस आदि पर होने वाली लम्बी छुट्टियों का सिलसिला बंद किया जाना चाहिए। उनके अनुसार, ‘‘अदालतों में गर्मियों की छुट्टियों का सिलसिला अंग्रेजों के जमाने में शुरू किया गया था। तब आज जैसी सुविधाएं नहीं थीं। अंग्रेज न्यायाधीश गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे परंतु आज प्रौद्योगिकी अत्यंत उन्नत हो चुकी है और इस कारण गर्मियों की लम्बी छुट्टियां भी अप्रासंगिक हो गई हैं।’’ याचिकाकर्ता ने कहा है कि हाईकोर्ट वर्ष में 210 दिन ही काम करते हैं और गर्मियों की एक महीने की छुट्टी के अलावा 22 घोषित अवकाश, 10 दशहरे के अवकाश और 8 क्रिसमस व नए साल के अवसर पर छुट्टियां होती हैं।
उसने इन छुट्टियों को, ‘जन विरोधी, लोकतंत्र विरोधी और न्यायविरोधी’ करार देते हुए कहा कि अकेले तमिलनाडु में ही विभिन्न चरणों पर 5 लाख केस लंबित पड़े हैं। उसने भारतीय विधि आयोग की 2009 की रिपोर्ट का हवाला भी दिया जिसमें कहा गया था कि ‘‘काफी समय से समूचे देश में कार्य संस्कृति का क्षरण होता चला आ रहा है। यही समय है कि अब न्यायाधीशों को न्यायिक कार्यों के लिए अपना पूरा समय देना चाहिए और ऐसी किसी भ्रांति में नहीं रहना चाहिए कि वे ‘लॉर्ड’ (महामहिम) अथवा समाज से ऊपर हैं।’’ उन्होंने हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश के. चंद्रू का वह कथन भी उद्धृत किया जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘‘अदालतों द्वारा वर्ष में मात्र 210 दिन काम करना साफ तौर पर मानवीय संसाधनों की घोर बर्बादी है।’’ अदालत ने इस याचिका पर फैसला अभी टाल दिया है।
अदालत का इस याचिका पर क्या फैसला आएगा ये तो भविष्य के गर्भ में छुपा है। पर इस याचिका ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या सभी तरह की सविधाओ से संपन्न हमारी न्यापालिका में इतनी छुट्टी जायज है वो भी उन परिस्थितियों में जब प्रतिदिन हमारी न्यायिक व्यवस्था पर मुकदमो को बोझ बढ़ता जा रहा है। हलाकि सिर्फ छुट्टियाँ ही इस मसले की विकरालता के लिए पूरी तरीके से जिम्मेदार नहीं है इसमें काफी हद तक अधिवक्ताओं द्वारा छोटी सी छोटी बात पर की जाने हड़ताल भी जिम्मेदार है जिसके चलते न्यायिक कार्यों में बाधा उत्पन होती है। लेकिन चूँकि न्यायिक व्यवस्था को सुचारू रूप से क्रियान्वित करना न्याय पालिका की जिम्मेदारी है इसलिए यह जरुरी है कि इस याचिका के परिपेक्ष्य में न्यायपालिका खुद में समीक्षा करें। लेकिन यक्ष तो यही है कि दूसरों के साथ न्याय करने वाली हमारी न्यापालिका क्या खुद इस मसले पर कोई सकरात्मक कदम उठाएगी।
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