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फर्जी खुलासों के लिए मीडिया भी जिम्मेदार

anurag
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इन दिनों लखनऊ गैंगरेप के मामले में फर्जी खुलासे को लेकर लखनऊ पुलिस की फजीहत चारो तरफ हो रही है। पर ये वक्त फजीहत करने का नहीं बल्कि आत्ममंथन का है कि आखिर क्यों इस समय पुलिस द्वारा किये जा रहे ज्यादतर खुलासे फर्जी साबित हो रहे है।

वास्तव में ये मीडिया के उस नकरात्मक पहलू का परिणाम है जिसमे मीडिया घटना घटने के 24 घंटे के अन्दर ही नकरात्मक खबरों का ऐसा हाइप बनाता है जिसके चलते घटना के जल्द से जल्द खुलासे का दबाव पूरे प्रशानिक अमले पर होता है।

अब जाहिर है कि पुलिस के पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं, घुमाया और अपराधी सामने आकर खड़ा हो गया। परिणाम स्वरुप अपना पीछा छुड़ाने के लिए पुलिस एक मनगढंत कहानी, एक मनगंढत अपराधी के साथ मीडिया को सुना देती है।

कई बार मीडिया उस कहानी को स्वीकार कर लेता है तो कई बार विरोध भी करता है। पर इससे सच्चाई नहीं बदलती। सच तो यही है कि फर्जी खुलासो को लेकर अगर पुलिस दोषी है तो कुछ हद तक मीडिया भी दोषी है।

मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है और इस लिहाज से जनहित के मुद्दों को उठाना उसका नैतिक धर्म है। चाहे वो मसला कानून व्यवस्था से जुडत्रा हो या किसी और मुद्दे से। हर मसले को उठाना आपका फर्ज है। पर मामले को उठाने से पहले ये देखना भी जरुरी है कि मामले को सुलझाने के लिए संबंधित अधिकारी को कितना समय दिया गया है। यदि समय सीमा एक हफ्ते या 15 दिन से ज्यादा गुजरती है उसकी नकरात्मक रिपोर्टिंग अनिवार्य है, अन्यथा नहीं।

एक और बात घटना के 24 घंटे के अन्दर मीडिया के पड़ने वाले नकरात्मक दबाव के चलते न केवल पीड़ित परिवार नुकसान उठाता बल्कि कोई न कोई निर्दोष व्यक्ति भी पुलिस द्वारा किये जाने वाले फर्जी खुलासे की भेट चढ़ जाता है। बेहतर होगा की मीडिया खुद में आत्म मंथन करें।

राजधानी में अपराध के कई ऐसे केस है जिनका खुलासा लखनऊ पुलिस कई महीनों से नहीं कर पायी है। हो सके तो ऐसे मामलों में नकरात्मक खबरों का हाइप मीडिया बनावे ताकि लखनऊ पुलिस की निष्क्रियता और नाकारेपन को सही ढंग से जस्टिफाई किया जा सके।

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