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उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार ने वरिष्ठ आईएएस अफसर सूर्य कुमार सिंह को प्रमुख सचिव उद्यम के पद से हटाकर वोटिंग लिस्ट में डाल दिया है और तीन साल की सजा पाए आईएएस प्रदीप शुक्ल को उनकी जगह पर नियुक्त कर दिया. ठीक उसी तरह जैसे कुछ दिन पहले सपा प्रमुख के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले आईपीएस आफिसर अमिताभ ठाकुर को निलंबित किया है और उनके विरुद्ध बाकायदा जांच कमिटी भी गठित कर दी है.
बताने की जरुरत नहीं कि ये दोनों अफसर विगत कई माह से राज्य की समाजवादी सरकार की बखिया उखेड रहे हैं. सूर्यप्रताप सिंह जहाँ इस सरकार के गलत निर्णयों और घोटालो का खुलासा कर रहे हैं वही अमिताभ ठाकुर अपनी सोशल एक्टिविटी के चलते सरकार आंख की किरकरी बने हुए. लिहाजा दोनों ही अधिकारीयों को राज्य सरकार ने ठिकाने लगाने का भरसक प्रयास किया है.
पर एक बात जो अब तक ना समझ में आयी वो यह कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे रणनीतकार आखिर किस दृष्टिकोण से राज्य हित/ समाजवादी हित के फैसले लेते है क्योकि अब तक तक के जितने चर्चित मामले रहे है वो चाहे गजेन्द्र सिंह हत्याकांड रहा हो या फिर यादव सिंह प्रकरण हर मामले में राज्य सरकार को मुहं की खानी पड़ी है, बावजूद इसके सरकार में बैठे रणनीतकार आज भी उलटे फैसले लेने पर अमादा है जिसका सटीक उदहारण इन दोनों अधिकारीयों पर बे-वक्त की गयी कार्यवाही है.
अब इसे राज्य सरकार की बेवकूफी कहे या खुद की कब्र खोद लेने का शौख कि इतने विरोधों के बावजूद सरकार जनता की मिजाज समझने में विफल हो रही है. सरकार ये समझ ही नहीं पा रही है कि उसके दवारा किये गए हर कृत्य पर जनता पैनी नजर रख रही है और बा-खूबी ये समझ रही कि सरकार दवारा लिए जा रहे फैसले लोकहित में है या स्वःहित में.
अब यादव सिंह प्रकरण को ही ले लीजिये. इलाहबाद हाईकोर्ट में इसी प्रकरण पर अपनी फजीहत करा चुकी सरकार अब इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाएगी जिसकी तैयारी भी बा-कायदा राज्य सरकार ने शुरू कर दी है. जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की जाएगी और सीबीआई जांच के इलाहबाद हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगाने की मांग की जाएगी. इस प्रक्रिया के दौरान राज्य सरकार आदेश के दौरान की गयी इलाहबाद हाई कोर्ट की उस टिपण्णी को या तो भूल रही है या फिर जान-बूझकर नजरअंदाज कर रही है जिसमे हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि मामले की गंभीरता को देखते हुए यह स्पष्ट हो रहा है कि सरकार जान बुझकर इस मामले का सच सामने नहीं आने देना चाहती है. अब इतनी सख्त टिपण्णी के बाद भी सुप्रीम कोर्ट से राज्य सरकार राहत मिले इसकी गुंजाईश काफी कम नजर आती है. लेकिन चूँकि यहाँ लोकशाही है लिहाजा संभावनाओं के बादल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
वैसे भी देश की संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत सबसे ज्यादा पावरफुल विधायिका ही है जिसके पास किसी को भी अनुग्रहित करने का सुप्रीम पावर है. वो चाहे तो किसी भी सडक छाप को मंत्री बना दें और चाहे तो किसी भी रिटायर्ड जस्टिस को आयोगों/ निगमों का अध्यक्ष. ये सब कुछ विधायिका में बैठे लोगो की इच्छा पर निर्भर करता है. बहरहाल कुछ भी हो पर इतना तो साफ़ है कि यादव सिंह प्रकरण को सुप्रीम कोर्ट ले जाकर राज्य सरकार खुद ही ये प्रमाणित कर देगी इस पूरे मामले में उसकी कालर बे-दाग नहीं है.
खैर अभी तो राज्य सरकार के पास के पूरे दो साल है. विकास की नयी गंगाएं बहाई जाएँगी जैसा की नित्य बहायी जा रही हैं. पर डर सिर्फ इतना है कि कहीं इन गंगाओं पर यादव सिंह जैसे फैसलों का काला साया ना पड़ जाएँ क्योकि “ये पब्लिक है भाई ये सब जानती है”.
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