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ये बात है मेरे ग्रेजुवेशन के दौर की है जब आम आदमी की आवाज़ बन चुके पांचवी पास हिंदी साहित्य के पुरोधा रामनाथ सिंह अदम गोंडवी एक शाम लखनऊ स्थित मेरे आवास पर पधारे. उनके साथ में थे उन्हें पहली बार जनवादी मंच पर ले जाने वाले गोंडा शहर के धाकड़ वकील टिक्कम दत्त शुक्ल.
दोनों ही मेरे पिताजी के अभिन्न मित्रों में थे लिहाजा मुलाक़ात के साथ ही वार्ता का लम्बा दौर चल पडा. इस दौर में जो एक चीज इन सबके साथ थी वो थी “मदिरा”.
जैसे-जैसे रात अपने शबाब पर जा रही थी वैसे-वैसे अदम का रंग भी चढ़ रहा था परिणामस्वरूप “महज तनख्वाह से निबटेंगे क्या नखरे लुगाई से लेकर आइये महसूस कीजिये जिन्दगी के ताप को मै चमारो की गली तक ले चलूँगा” सहित ना जाने कितनी नज्मे और कवितायेँ अदम दादा ने हमे सुनाई.
इसी बीच एक ऐसी बात हुई जिसे मै आज तक ना भूल सका. दरसल हुआ ये कि रात बढ़ते शबाब के साथ मदिरा का कोटा खत्म होने लगा, कि तभी आदम को याद आई सुबह की “प्रभाती”. उन्होंने टिक्कम दत्त को टोकते हुए कहा कि सुबह की प्रभाती रख लिहो, टिक्कम दत्त ने कहा “हाँ”
खैर जैसे-तैसे रात कटी और सुबह हुई. सुबह की पहली किरण के साथ आदम के चिल्लाने की आवाज़ घर के हर कोने में गूंजने लगी. वो बस एक ही बात कहे जा रहे थे “जावो टिक्कम दत्त हमारा “प्रभाती” पी गयो अब हमर सबेर कैसे हुई और टिक्कम दत्त इतने कहे कि हम नहीं पीहेन सुभाष (मेरे पिताजी) से पूछो अब उसी धडकती आवाज़ में उन्होंने पिता जी को जगाया और वही डाइलाग मारा जो कुछ देर पहले ही उन्होंने टिक्कम दत्त से कहा था, खैर पिताजी का वही जवाब था जो टिक्कम दत्त ने दिया.
खैर परिणाम ये निकला कि रह-रह कर कभी पिताजी तो कभी टिक्कम दत्त उनके क्रोध का भाजन बने. आखिरकार थक हारकर पिताजी ने छुपी हुई प्रभाती उन्हें दी और प्रभाती पाते ही उन्होंने कहा कि “ई के बिना दिमाग काम करें शुरू नहीं करत है”.
लेकिन वाह रे काल की नियति जो प्रभाती(शराब) की उनकी बुद्धिवर्धक दवाई थी अन्तः वही उनकी मौत का कारण बनी.
(अदम आप न होकर भी सालों-साल हमारे दिलों में जिन्दा रहोगे और आपकी लिखी कवितायेँ और नज्मे वक्त-बेवक्त आम आदमी की आवाज़ बनती ही रहेंगी.)
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